कविता के पंख

 

कविता के पंख


जैसे ही कवि ने पंख दिया था,
ऊँचे अम्बर में, उड़ जाने को।
कविता खुश हो, उड़ती ही गई।
इस नील गगन को छू पाने को।
 
अरमान संजोया उन आँखों में,
खुलकर विचरण कर सकती हूँ।
शायद यह वक्त न फिर से मिले,
फिर क्योंकर मैं आँहे भरती हूँ।
यह सोंचकर वह इतरा रही थी,
उड़ चली, वह मन भरमाने को।
 
खुलने दो अभी, खिलने दो जरा,
यह कहकर ऊपर चढ़ती ही गई।
कोई रोक न ले, कोई टोक न दे,
वह ऊपर - ऊपर बढ़ती ही गई।
जब ठान लिया कि चढ़ना है मुझे,
फिर डर काहे का गिर जाने को।
 
मेरा अपना चरित्र कुछ ऐसा है,
बिन कहे ही सब कह जाती हूँ।
जो आत्मसात करना चाहे मुझे,
उस अंत:स्थल में रह पाती हूँ।
अस्तित्व हिलाकर रख देती हूँ,
कुछ पास नहीं है, मेरे खोने को।

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