शब्द

 

शब्द

शब्दों ने कई जाल बुने हैं,
अंतर्मन की  फुलवारी में।
मर्यादा भंग हुई शब्दों की,
आज इस दुनियादारी में।

शब्द समर्पण सिखलाता है,
समभाव से जीना मरना है।
दम तोड़ रहे भाव सभी का,
अपने उस यार की यारी में।

संसार एक शब्दों का  होता,
शब्दों की होती मायाजाल।
शब्दों के जाल उलझकर ही,
हर फूल सूख गए क्यारी में।

शब्द के साथ विराम होता है,
चाहे हो अर्ध या पूर्ण विराम।
जीवन में भी आता है विराम, 
सब राख होता है चिंगारी में।

शब्दों के भाव बदल जाते हैं,
देखकर चरित्र ही व्यक्ति का। 
चेतना विहीन हो जाता है मन,
और व्यथित होता  दुश्वारी में।

देख नजाकत खुद को बदलते,
जब समय सामने आ जाता है।
सारा ही खेल रचता है शब्द पर,
रहता न खुद की अधिकारी में। 

शब्दों की महिमा करके बखान,
सुलझाता है वक्त ये क्षणभर में।
शब्दों के सब दंश झेलकर, खुद
कोई जीना सीख लेते खुद्दारी में।

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