मैं एक
नन्हीं बूँद हूँ निर्बल,
खुद के सागर में रहती हूँ।
तेज हवाओं के झोंके और,
सूरज के ताप मैं सहती हूँ।
खुद के सागर में रहती हूँ।
तेज हवाओं के झोंके और,
सूरज के ताप मैं सहती हूँ।
वाष्प मैं बनकर उड़ जाती,
चल पड़ती हूँ नभ की ओर।
मिल जाती हूँ बादल से जा,
पर दर्द बयान न करती हूँ।
बादल
सहेज नहीं पाता है,
वह हाथ
छोड़ देता है मेरा।
ऊपर से
नीचे आकर कब,
गन्दी
नाली में सो जाती हूँ।
नाली सरिता में मिलती है,
तब ही विलीन मैं होती हूँ।
बहती जलधारा में बहकर,
मैं जलधि में खो जाती हूँ।
नियति
मेरा यही शायद है,
मुझको
भटकना पड़ता है।
सागर
जो पनाह मुझे देता,
मैं
उसमें जब घुल जाती हूँ।
पाकर पनाह उस सागर से,
खोया सकून मिल जाता है।
रोम-रोम पुलकित होता है,
जब सागर में मिल जाती हूँ।
क्षमा
करो हे जलधि-निधि,
तुमसे
बिछड़ा दुख पाया है।
तूने
ही पनाह दिया फिर से,
आशीष
दो मैं खो जाती हूँ।
सागर तब तड़प उठा, बोला
दुख से तुम्हें अहसास हुआ।
लेकिन जो तड़प रहा तबसे,
तुमने हवा संग विदा लिया।
मैं
इंतज़ार कर रहा हूँ तबसे,
सरिता
से तुम्हें मिलवाया है।
आके
समां जा दामन में मेरे,
जैसे
खोया नहीं न पाया है।
बाँहों को फैलाकर सागर ने,
बूँदों को समेट लिया खुद में।
वह बूँद शेष फिर बचा नहीं,
उसका वजूद अब अर्णव है।
इंसान
रूपी वह बूँद हैं हम,
वारिधि
विधाता मिलना है।
कई
जन्मों से भटक रहे हैं,
उनमें
खोकर ही खिलना है।
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