चक्र समय का चलता जाता, डर लगता है जीने में।
सत्य सदा ही सत्य होता है,चाहे दफन रहे सीने में।
मानव ने खुद को बाँटा है, अपने ही बनाए धर्मों से।
जन्म लिया है मानव बनकर, पूर्व जन्म के कर्मों से।
क्योंकर खेल है खेला जाता, क्यों न इरादा नेक है।
हर जीव जगत का जानता, ईश्वर तो बस एक हैं।
जानते हैं हम एक हैं
ईश्वर, फिर भी भेद बना रहता।
धर्म सनातनी एक धर्म है, पर सब एक नहीं कहता।
कुछ ने आडम्बर की चादर
ओढ़ रखा तन पर अपने।
नाली के कीड़ों की परत में, ढ़क रखा मन को अपने।
नहीं निकलकर आ पाते हैं, खुद इंसानों की बस्ती में।
व्यभिचारी व दुराचारी बनकर, जीना चाहते मस्ती में।
सूरज की किरणें भी जब, इंसानों में भेद नहीं
करती।
फिर ईश्वर के कोप से कैसे, धर्म कोई बचकर रहती?
जो जुर्म करे उसके खिलाफ,बातें करना है पाप नहीं।
डरा करो प्रभु से भी कहीं, मिल जाए अभिशाप नहीं।
हर युग में दो रूप हुआ
करता है, धरा पर मानव का।
प्रवृति एक की अच्छी होती, दूसरा रूप है दानव का।
दानवी प्रवृति वाले नर का, निश्चय ही अंत बुरा होता।
ईश्वर के समीप रहनेवालों का, हर सपना पूरा होता।
सत्य एक है जीवन का, एक दिन जरूर जाना होगा।
ऊपरवाले से पूछो यह, क्या कुछ लेकर आना होगा।
अगर नहीं तो, फिर क्यों ही मानवता को
दुख देते हो।
जो निश्छल जीवन जीते हैं, उनको ही देखके रोते हो।
वक्त नहीं गुजरा है अभी, इंसान ही बन जीना सीखो।
अगर पड़े पीना यदि विष तो, हँसकर के पीना सीखो।
Well done. Keep it up.
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