कौन चाहता है खत,
अपने हाथों से लिखना?
अब तो ये जमाना, नया आ गया है।
न लिखी जाती है जज्बात,
कागज पर दिल की।
नहीं अब तड़प ही,
कोई रह गया है।
वह वक्त और था जब,
अपने दिल की भावनाओं को।
कागज के किसी टुकड़े पर,
उड़ेल कर, रख दिया करते थे।
तब बात और थी जब,
मिलना हो कभी उनसे,
हर दिन एक बहाना, नया ढूँढ़ लेते।
सुबह की हर किरण,
एक उम्मीद लिए आती।
निगाहें मेरी जाकर,
दरवाजे पर टिकती।
कि अब डाकिया आएगा,
निश्चय ही खत मेरा लाएगा।
रखकर हाथों में मेरे, लौटकर जाएगा।
पर डाकिया जब आता,
और आकर चला जाता।
मेरा ही खत वह न लेकर जब
आता।
होता तब उदास और मायूस
मेरा मन।
मन की अभिलाषा, मन में रह जाती।
किसी दिन अचानक,
जब वह पल भी आता।
अहले सुबह डाकिया आ भी
जाता।
मेरे प्रियतम के हाथों का
लिखा खत,
मेरे हाथों में देकर चला
जाता।
एक अजीब सी शांति मिल जाती
मन को,
जैसे तूफान के जाने के बाद
की,
हो वह खामोशी।
पलभर में ही खत को खोल,
पढ़ने लगती पाँति-पाँति।
जैसे कोई मौका खुशी का,
करीब आ गया हो।
जैसे खुद चलकर मेरे
प्रियतम,
मेरे ही करीब आ गया हो।
ऐसा ही लगे, जैसे कि जैसे
सारे जमाने की खुशियाँ,
सिमटकर मेरे दामन में समा
गया हो।
पर कहीं अब नहीं वैसा,
जज्बात दिखता।
न ही अब वह दिल की कसक,
और न वह चेहरे की चमक।
किसी चेहरे पर मैं जो नहीं
देख पाता।
मिटी और मिटा दी गई है दूरियाँ।
जबसे अवतार बैरी दूरभाष ने लिया है।
ज्ञान कुंठित सब हुआ,
अब उठाने को कलम,
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